कामसूत्र का प्रणयन अधिकरण, अध्याय और प्रकरणबद्ध किया गया है। इसमें 7 अधिकरण, 36 अध्याय, 64 प्रकरण और 1250 सूत्र ( श्लोक ) हैं। ग्रन्थकार ने ग्रन्थ लिखने से पूर्व जो विषयसूची तैयार की थी उसका नाम उसने ‘शास्त्रसंग्रह’ रखा है अर्थात् वह संग्रह जिससे यह विषय (कामसूत्र ) शासित हुआ है।[8]
कामसूत्र के प्रथम अधिकरण का नाम साधारण है। शास्त्रसंग्रह, प्रथम अधिकरण के प्रथम अध्याय का प्रथम प्रकरण है। इस अघिकरण में ग्रन्थगत सामान्य विषयों का परिचय है। इस अधिकरण में पाँच अध्याय और प्रकरण हैं। विषय-विवेचन के आधार पर अध्यायों और प्रकरणों के नामकरण किए गए हैं। प्रथम अधिकरण का मुख्य प्रतिपाद्य विषय यही है कि धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति कैसे की जा सकती है। मनुष्य को श्रुति, स्मृति, अर्थविद्या आदि के अध्ययन के साथ कामशास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। कामसूत्रकार ने सुझाव दिया है कि व्यक्ति को पहले विद्या पढ़नी चाहिए, फिर अर्थोपार्जन करना चाहिए। इसके बाद विवाह करके गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश कर नागरकवृत्त का आचरण करना चाहिए। विवाह से पूर्व किसी दूती या दूत की सहायता से किसी योग्य नायिका से परिचय प्राप्त कर प्रेम सम्बन्ध बढ़ाना चाहिए और फिर उसी से विवाह करना चाहिए। ऐसा करने पर गार्हस्थ्य जीवन, नागरिक जीवन सदैव सुखी और शान्त बना रहता है।
द्वितीय अधिकरण का नाम साम्प्रयोगिक है। ‘सम्प्रयोग’ को अर्थ सम्भोग होता है। इस अधिकरण में स्त्री-पुरुष के सम्भोग विषय की ही व्याख्या विभिन्न रूप से की गई है, इसलिए इसका नाम ‘साम्प्रयोगिक’ रखा गया है। इस अधिकरण में दस अध्याय और सत्रह प्रकरण हैं। कामसूत्रकार ने बताया है कि पुरुष अर्थ, धर्म और काम इन तीनों वर्गों को प्राप्त करने के लिए स्त्री को अवश्य प्राप्त करे किन्तु जब तक सम्भोग कला का सम्यक् ज्ञान नहीं होता है तब तक त्रिवर्ग की प्राप्ति समुचित रूप से नहीं हो सकती है और न आनन्द का उपभोग ही किया जा सकता है।
तीसरे अधिकरण का नाम कन्यासम्प्रयुक्तक है । इसमें बताया गया है कि नायक को कैसी कन्या से विवाह करना चाहिए। उससे प्रथम किस प्रकार परिचय प्राप्त कर प्रेम-सम्बन्ध स्थापित किया जाए? किन उपायों से उसे आकृष्ट कर अपनी विश्वासपात्री प्रेमिका बनाया जाए और फिर उससे विवाह किया जाए। इस अधिकरण में पाँच अध्याय और नौ प्रकरण हैं। उल्लिखित नौ प्रकरणों को सुखी दाम्पत्य जीवन की कुञ्जी ही समझना चाहिए। कामसूत्रकार विवाह को धार्मिक बन्धन मानते हुए दो हृदयों का मिलन स्वीकार करते हैं। पहले दो हृदय परस्पर प्रेम और विश्वास प्राप्त कर एकाकार हो जाएँ तब विवाह बन्धन में बँधना चाहिए, यही इस अधिकरण का सारांश है। यह अधिकरण सभी प्रकार की सामाजिक, धार्मिक मर्यादाओं के अन्तर्गत रहते हुए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का समर्थन करता है।
चतुर्थ अधिकरण का नाम भार्याधिकारिक है। इसमें दो अध्याय और आठ प्रकरण है। विवाह हो जाने के बाद कन्या ‘भार्या’ कहलाती है। एकचारिणी और सपत्नी (सौत ) दो प्रकार की भार्या होती है। इन दोनों प्रकार की भार्याओं के प्रति पति के तथा पति के प्रति पत्नी के कर्त्तव्य इस अधिकरण में बताए गए हैं। इस अधिकरण में स्त्रीमनोविज्ञान और समाजविज्ञान को सूक्ष्म अध्ययन निहित है।
पाँचवें अधिकरण का नाम पारदारिक है। इसमें छह अध्याय और दस प्रकरण हैं। परस्त्री और परपुरुष का परस्पर प्रेम किन परिस्थितियों में उत्पन्न होता है, बढ़ता है और विच्छिन्न होता है, किस प्रकार परदारेच्छा पूरी की जा सकती है, और व्यभिचारी से स्त्रियों की रक्षा कैसे हो सकती है, यही इस अधिकरण का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।
छठे अधिकरण का नाम वैशिक है। इसमें छह अध्याय और बारह प्रकरण है। इस अधिकरण में वेश्याओं के चरित्र और उनके समागम उपायों आदि का वर्णन किया गया है। कामसूत्रकार ने वेश्यागमन को एक दुर्व्यसन मानते हुए बताया है कि वेश्यागमन से शरीर और अर्थ दोनों की क्षति होती है।
सातवें अधिकरण को नाम औपनिषदिक है। इसमें दो अध्याय और छह प्रकरण हैं। इस अधिकरण में, नायक-नायिका एक दूसरे को मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, औषधि आदि प्रयोगों से किस प्रकार वशीभूत करें, नष्टरोग को पुनः किस प्रकार उत्पन्न किया जाए, रूप-लावण्य को किस प्रकार बढ़ाया जाए, तथा बाजीकरण प्रयोग आदि मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। औपनिषदिक का अर्थ ‘टोटका’ है।
पाठानुशीलन से प्रतीत होता है कि वर्तमान पुस्तकों में मूल प्रति से भिन्न सूत्रानुक्रम है। अनुमान है कि सबसे पहले नन्दी ने ही ब्रह्मा के प्रवचन से कामशास्त्र को अलग कर उसकी प्रवचन किया। कामशास्त्र के बाद मनुस्मृति और अर्थशास्त्र प्रतिपादित होने का भी अनुमान होता है, क्योंकि मनु और बृहस्पति ने ग्रन्थ का प्रवचन न कर पृथक्करण किया है। इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रकार की पृथक्करण-प्रणाली का सूत्रपात प्रवचन काल के बहुत बाद से प्रारम्भ हुआ है। नन्दी द्वारा कहे गए एक हजार अध्यायों के कामशास्त्र को श्वेतकेतु ने संक्षिप्त कर पाँच सौ अध्यायों का संस्करण प्रस्तुत किया। स्पष्ट है कि ब्रह्मा के द्वारा प्रवचन किए गए शास्त्र में से नन्दी ने कामविषयक शास्त्र को एक हजार अध्यायों में विभक्त किया था। उसने अपनी ओर से किसी प्रकार का घटाव-बढ़ाव नहीं किया क्योंकि वह प्रवचन-काल था । प्रवचन-काल की परम्परा थी कि गुरुओं, आचार्यों से जो कुछ पढ़ा या सुना जाता था उसे ज्यों को त्यों शिष्यों
और जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता था, अपनी ओर से कोई जोड़-तोड़ नहीं किया जाता था। प्रवचन-काल के अनन्तर शास्त्रों के सम्पादन, संशोधन और संक्षिप्तीकरण का प्रारम्भ होता है। श्वेतकेतु प्रवचन-काल के बाद का प्रतीत होता है क्योंकि उसने नन्दी के कामशास्त्र के एक हजार अध्यायों को संक्षिप्तीकरण और संपादन किया था। बल्कि यह कहना अधिक तर्कसंगत होगा कि श्वेतकेतु के काल से शास्त्र के सम्पादन और संक्षिप्तीकरण की पद्धति प्रचलित हो गई थी और बाभ्रव्य के समय में वह पूर्ण रूप से विकसित हो चुकी थी।